कब निकला, कब डूबा चाँद शहर में किसने देखा चाँद जाने किस ग़म में तिल-तिल रोज़ पिघलता रहता चाँद सोच रहा हर इक मुफ़लिस काश रुपैया होता चाँद करवा-चौथ को होता है सबका अपना-अपना चाँद नभ-सरिता में तैर रहा कश्ती बनकर आधा चाँद
Copy and paste this URL into your WordPress site to embed
Copy and paste this code into your site to embed